समय समय का फेर है सारा,आंदोलन आ जाते थे
पत्रकार नवयुवको में नयी जान भर जाते थे
आज की पत्रकारिता का वृतांत आपको बतलाते है।
सबपर ये प्रकाश डाले थोड़ा इन पर भी आते है
पत्रकारिता विफल हो रही अपनी अलख जगाने में,
लोगों को समझने में और अपनी बात बताने में ,
क्रय विक्रय हो चले हैं इसमें,सत्य कहाँ टिक पाता है?
पहले तोला जाता है और फिर मुँह खोला जाता है
निष्पक्षता की बात करे ये,तथ्य नहीं बतलाते हैं।
एक कमरे में बैठ कर ,ये दुनिया को बरगलाते हैं।
हास्यपद हो चलें हैं इतने,गरिमा कहाँ रख पाते हैं?
चिल्लम -चिल्ली करने को ये समाचार बतलाते हैं।
हिन्दु,मुस्लिम,सिख,ईसाई समीकरण में बाँटे है
पहले ये भड़काते है, फिर ये ढोंगी शोर मचाते हैं
देशहित की बात छोड़िए बस टी.आर.पी से नाता है
तिल का ताड़ बनाने में इन्हें,मज़ा बहुत ही आता है।
उद्दंड हो चले है इतने निजी जीवन में झाँके है।
भावनाओं के नाम पर मृत पाए ये जाते है ।
-डॉ रूचि ढाका
पीएचडी
मनोविज्ञान