तू जननी तू ज्वाला है
तेरा हर रूप निराला है ,
नारी तू विशाल है ,
फिर तू कहाँ है खो रही।
आज के समय मैं भी ,
तू धरा सी हो रही ।
अस्तित्व मैं तू आ ज़रा,
अपने को तू जगा ज़रा,
मखौल जो ये हो रहा,
उन शब्दों मिटा ज़रा ।
दूसरे के शब्दों से ,
अपने को तू हटा ज़रा
अपने नाम की लौ ,
अब संसार मैं जगा ज़रा ।
संतुष्ट है क्यों मौन है
अपने अस्तित्व को बचा ज़रा ,
सर्वगुण संपन्न तू ,तो फिर कहाँ है खो रही ,
मन ही मन को मार कर ,तू क्यों धरा सी हो रही,
उलझनो से भरें हुए ,इन धागों को सुलझा ज़रा ,
नारी है तू विशाल है अस्तित्व मैं तू ज़रा।।
-डॉ रूचि ढाका
पीएचडी
मनोविज्ञान