रंग सजायें बैठी थी चुनरी मेरी लाल,
पर बैरी इस काल ने लील लिए भर्तार
हरी लाल मेरी चूड़ियाँ, छनछन करे थी शोर
सुखी पड़ी कलाईयाँ, अब कहे का शोर ।
रंग चटकीले मुझे भावे थे
सतरंगी सपने आवे थे।
अब सफ़ेद चादर, मुझे उढ़ाई जाएगी,
फिर दागो की बारी आएगी ।
शगुन और अपशगुन अब मेरे क़दमों से होगा,
गिराया जिस पैर से था कलश,
अब वहीं मेरा बैरी होगा
निगाहे अब सभी कीं मुझपर टिकेगी,
किसी की दयनीय,
किसी की लालायित रहेगी।
रंगों से गर दो चार होऊँगी,
वही से तानो की बौछार होगी
दुनिया के तानो को अब कैसे सहूँगी।
रंगहीन सपनो को बोलो कैसे बुनूँगी ।।
विधाता तू मेरा गुनहगार होगा।
समाजों से जब मेरा तिरस्कार होगा ।
मौन आँखों की भाषा ना पढ़ सकोगे ।
मेरे मन की पीड़ा को ना हर सकोगे ।
डॉ रूचि ढाका
पीएचडी
मनोविज्ञान